गरमी की वो दोपहर याद आती है
उस दोपहर की वो चिलचिलाती धूप याद आती है
स्कूल के वो ground याद आते हैं
छुट्टी की वो घंटी याद आती है
दोपहर की वो नींद भरी फुर्सत याद आती है
आम और इमली की वो छाओं याद आती है
कैम्पस की वो सुनसान सड़कें याद आती हैं
घर पहुचने की वो जल्दी याद आती है
माँ की वो डांट याद आती है
बचपन की वो खुराफ़ात याद आती है
घर का वो आँगन याद आता है
आँगन में बिखरा आम का वो बौर याद आता है
सुराही का वो ठंडा पानी याद आता है
कुल्फी बेचने वाला वो चाचा याद आता है
गेंदे की वो क्यारी याद आती है
पानी तलाशती वो गौरैया याद आती है
याद आती है गरमी की वो दोपहर
जो आज हो कर भी नहीं है
अब धूप तसल्ली नहीं देती, चुभती है
अब फुर्सत भूले भटके भी नहीं मिलती है
माँ की डांट सुनने को ये कान तरसते हैं
वो गौरैया दिखे, तो उसको अपनी खुशकिस्मती समझते हैं
अब घर पहुचने की वो जल्दी नहीं रहती
शायद AC केबिन में कभी गरमी नहीं लगती
लोगों को खुश करने से फुर्सत ही नहीं मिलती
अपनी इच्छाओं पे कभी नज़र ही नहीं पड़ती
प्यास तो आज भी लगती है
लेकिन कुछ भी ऐसा नहीं जिससे ये बुझती हो
अब सड़कें नहीं दुनिया सुनसान दिखती है
कब ये दोपहर बीते और शाम आये बस यही बेचैनी रहती है
Indian Sparrow : http://en.wikipedia.org/wiki/House_Sparrow |
2 comments:
♥
याद आती है गरमी की वो दोपहर
जो आज हो कर भी नहीं है
अब धूप तसल्ली नहीं देती, चुभती है
अब फुर्सत भूले भटके भी नहीं मिलती है
क्या बात है !
बंधुवर … जी
अभिवादन !
बहुत सारी यादों को साथ लिये हुए आपकी इस रचना ने हमें भी स्मृतियों की वीथियों में चक्कर लगाने को निमंत्रित किया …
विगत को स्मरण करना हमें सचमुच अच्छा लगता है…
आपकी कुछ अन्य रचनाएं भी पढ़ीं … अच्छी लगीं ।
शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
धन्यवाद सर!! बस खाली समय में कुछ लिख लेता हूँ| आपका ब्लॉग देखा अभी....बोहोत ही अच्छा है, पूरी राजस्थानी छठा बिखरी हुई है वाहन बोहोत अच्छा लगा पड़ के|
regards
पारस
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