तेरी हर बात को लिखना चाहता था
डर था कहीं तू खो न जाए इन झंझटों में
मगर कुछ पन्ने तो कोरे ही रह गए
शायद वही हैं जो तुझे भरने थे
कतरा कतरा ये सब भी बह जाएगा
लफ्ज़ दर लफ्ज़ ये गीत भी बन जाएगा
वो धुंधला ख़याल अभी भी ज़हन में है
गर कुछ पास नहीं तो वो पन्ने हैं
उन लफ़्ज़ों पे हक तेरा भी था
जो टूटा वो ख़्वाब मेरी ही था
और लिखने के लिए सियाही कहाँ से लाऊँ
इस ज़िन्दगी को मैं क्या क्या समझाउं
अब तो जैसे एक गर्द सी है इस फर्श पे
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