आज एक कुम्हार जैसा महसूस कर रहा था
गीली मिटटी जैसे कई विचार थे जिनको तक रहा था
सब कुछ आँखों के सामने ही पड़ा था
फिर भी क्या बनाऊं क्या बनाऊं सोच रहा था
शायद मिटटी रख के चक्का चलने कि देर थी
जो आकृति थी वो तो पहले ही मन में ढल चुकी थी
ना जाने कहाँ कहाँ से ये मिटटी आई है
भावनाओं और विचारों का एक बवंडर लायी है
कई जाने पहचाने से चेहरे हैं इसमें
भूत, भविष्य और वर्तमान के कई रंग भी है इसमें
इच्छाओं के पानी से गीली है ये मिटटी
एकदम सच्ची है उस कोरे कागज़ सी ये मिटटी
और ये चक्का भी तो उस समय सा लगता है
जब भी चलता है कोई नयी आकृति ही रचता है
आकृति चाही अनचाही सी, कभी उस छोटे
कुल्लड तो कभी उस पतली सुराही सी
ये मिटटी तो अक्षत है इसे कैसे भी ढाल लो
ये मन भी तो निश्छल है कुछ इसकी भी मान लो
जो जैसा ढलता है ढलने दो, बस इन
विचारों को आज़ादी के आकाश में उड़ने दो
जो जैसा ढलता है ढलने दो, बस इन
विचारों को आज़ादी के आकाश में उड़ने दो
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Image Courtesy : Clay Ave Pottery Studio (http://transformingclay.wordpress.com/page/25/ ) |
2 comments:
Beautiful!!
thanks a lot vinaya :)
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