एक सच्चा प्रयास था इस बार, शायद जो सुना था जो समझा था उसके मुताबिक चलने की कोशिश की थी। पूरी सच्चाई, श्रद्धा और स्पश्ता से कुछ पल चुने थे। सोचा था इन् पलों का एक गुच्छा तैयार करूंगा, जो शायद मेरे बिखरे मन के टुकड़ों को समेट सके। वो पल किसी और के थे उन्हे अपना समझना शुरू कर दिया था। मन इतना नज़दीक आगया था की लगता था ये मेरा ही जीवन है।
भावनाए हमेशा ही कमज़ोर होती हैं, हमेशा ही सहारा तलाशती रहती हैं। इसीलिए शायद भावनाओं को दोष देना उचित नहीं होगा। इस मन ने भी कुछ ऐसा ही किया, जैसे ही लगा ये पल मेरा हो सकता है झट से लपक लिया। मन को दुनिया-दारी से कहाँ मतलब होता है। बस कुछ भी देखता है और निष्कर्ष निकाल लेता है।
लेकिन सारी गलती मन की नहीं है, ये पल ही कुछ ऐसे थे। मन अपने आप ही बावरा होता चला गया। इन पलों में भी एक सच्चाई थी एक अपनापन एक नरमी थी जो ये मन हमेशा तलाशता था। आनेवाले कल की एक धुंधली सी तस्वीर भी थी जिसे शायद मन ने अपनी तस्वीर समझ लिया था। बेचारा मन इसे ये तो पता है की इसे क्या चाहिए पर वो कैसे मिलेगा इसका अंदाज़ा नहीं है इसको।
खैर जो भी हो अनेक पल समेटे इस मन ने, उस छोटे बच्चे की तरह जो हर शाम साहिल पे रेत की घरोंदे बनाता है। और अगले दिन वापस आता है इस उम्मीद में की शायद उसका घरोंदा आज भी वहीँ होगा, शायद ही कभी उसे कुछ मिलता हो वहां। कुछ ऐसा ही हो रहा था इस मन के साथ। पल तो काफी जुटा लिए थे लेकिन कभी ये पल साथ देंगे इसका विश्वास नहीं था।
मन अपनी ही करता है इसीलिए सोचता भी बोहोत है, कभी कोई विचार मिल जाए तो बस बात बन जाए। ऐसा ही करते करते एक दिन इसको एक अनुभूति भी होगई भविष्य की। शायद कुछ देख लिया था या समझ लिया था इस मन ने। तब से ये डरा डरा सा रहने लगा अपने ही विचारों पे से विश्वास खोने लगा, और फिर क्या था एक और सहारा तलाश लिया इसने। इस बार सहारा कोई और नहीं बल्कि उपरवाला ही था। मन ने सोचा उपरवाला तो सब देखता है, सही क्या है गलत क्या है ज्यादा अच्छे से समझता है वो, तो शायद कुछ मद्दद मिल जाए उससे। उपरवाला देखता तो सब है पर करता वही है जो उसकी मर्ज़ी होती है, इसीलिए शायद उससे मद्दद की उम्मीद करना भी एक गलती थी।
मुझे लगता है जिस तरह दो नाव में सवारी नहीं करनी चाहिए बिलकुल उसी तरह कभी दो सहारों पे भी भरोसा नहीं करना चाहिए। मन भगवान् के करीब तो चला गया, लेकिन जो पल वो जुटा चुका था वो धीरे धीरे उसके हाथ से रेत की तरह फिसलने लगे।
जो हो रहा था वो काफी कुछ उस विचलित करने वाली अनुभूति के अनुसार ही था। बस ये तो मन था जो हमेशा अपने आप को सांत्वना देता रहता था। सच्चाई से परे एक सपनो की दुनिया में जाने लगा था। धीरे धीरे वो पल भी ऐसे व्यवहार करने लगे जैसे कभी इस मन से मिले ही न हों। लेकिन ये मन है जो उनको कभी झूठा नहीं पायेगा। उसे आज भी लगता है वो सारे पल उसके ही हैं।
ऊपर से देखने पे एक मजबूरी सी लगती थी इन पलों की, शायद कोई रोक रहा था उन्हें। मन को लगता है जब सब कुछ टूटेगा तब भी वो दोष इन पलों को नहीं दे पायेगा। उसके अनुसार शायद दोष किसी का नहीं है, ये सब तो एक कहानी थी जो बस घटती चली गयी। मन ने वहीँ किया जो उसे करना चाहिए था, और वो पल भी वहीँ रुक गए जहाँ उन्हे रुकना चाहिए था।
आज इस वक़्त शायद सारे पल हाथ से नहीं निकले हैं लेकिन मन जानता है उसके हाथ में शायद ही कुछ बचेगा। अभी बस इतनी ही दुआ है कि वो पल समझ लें कि दोनों का मिलना एक सच्चाई थी जिस प्रकार दोनों का अलग होना होगी। उस गुच्छे में लगा शब्दों का एक एक फूल सच्चा है और जीवन भर इस कहानी कि खुशबू संजो कर रक्खेगा। दुःख अलग होने का नहीं हैं अचरज तो इस बात पे है कि गलती किस्से और कहाँ हुई। मन के ये सबसे शांत और सुन्दर पल थे जो शायद कागज़ में ही रह जायेंगे। उन पलों का तो पता नहीं, लेकिन इस मन में ये ज्योति हमेशा जलती रहेगी।
0 comments:
Post a Comment